Tuesday, March 28, 2017

On Children by Kahlil Gibran. Translation by Mahima Singh

Translation
तुम्हारी हो कर भी नहीं हैं तुम्हारी, ये संतानें
बेटियाँ और बेटे,
जो जीवन की जीवन के लिए,
चाहत से हैं पनपे।
जो तुम्हारे ज़रिए हैं, मगर "तुम से" नहीं
जो तुम्हारे साथ हैं, मगर तुम्हारे नहीं।
इन्हें,
तुम दे पाओगे प्रेम, अपने विचार नहीं
क्योंकि, विचार स्वतः लाए हैं वे।

तुम गृहीत कर पाओगे उनकी देह को
न कि आत्मा को,
उनकी आत्माओं का ठौर है, आने वाले कल के ठिकाने में,
जहाँ कभी नहीं पहुँच सकोगे, तुम
स्वप्न में भी नहीं।

कर पाओ तो करो प्रयास, उनकी तरह बनने का,
न करो चाहत उन्हें ढालने की, अपने सांचे में।
कि जीवन धारा नहीं बहती है उलट प्रवाह,
वो नहीं बहती बीते कल की रफ्तार से।

तुम हो वो धनुष, जिससे तुम्हारी संतानें, ये जीवंत बाण
होते हैं अग्रसर भविष्यार्थ।
क्योंकि देख सकता है केवल धनुर्धर, लक्ष्य बिंदू, अनंत राह पर
सो तानता है और खींचता है, पूरे सामर्थ्य से तुम्हें
ताकि उसके बाण हों द्रुतगामी, पहुँचें सुदूर।
तो सौंप डालो स्वयं को उसके हाथों में यूं,
कि जब वो ताने,आनंदवर्षा हो
सौंप डालो
क्योंकि धनुर्धर को प्रिय है धनुष, जो स्थिर है, संतुलित है,
जैसे उसे प्रिय है वो बाण जो उड़े।